सोचता हूँ ऐ ज़िंदगी
तिलिस्म तू अजीब हो |
दूर कहाँ तक ले चलोगे
या कि मौत के करीब हो |
फिक्र न कोई करता कभी
रौ में अपने जा रहा |
ओरों का छीनकर जिंदगी
जिंदगी बिता रहा |
सोचता हूँ ऐ जिंदगी
जी भर तुझे चले जी लूँ |
पाप-पूण्य से परे निकल
क्षण का कतरा-कतरा पी लूँ |
न पुण्य-प्रलोभित बुद्धि-विचार
ना पर-पीकड़ हो कर्म |
सोचता हूँ ऐ जिंदगी
समरसता तेरा मर्म |
-: अशोक झा दुलार ;-
सोचता हूँ ऐ ज़िंदगी || Hindi poem
Reviewed by Triveni Prasad
on
नवंबर 15, 2020
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