गुफ्तगू दीया और बाटी की
मिट्टी से दीया और दीया से मिट्टी बनते चले गए,
हम ठहरें लौं, जो हर बार नए सिरे से जले रहे |
उजाला फकत ख्वाहिश ना थी मेरी कभी,
ना जाने कितने चौखट पे हम निशब्द हो खड़े रहे |
अंधेरों से दोस्ती रही मेरे खुद के पैरों की,
ये दुनिया है जिसकी खातिर एक दूजे से लड़ें रहे |
घर चलता नहीं कभी एक जैसे लोगों से,
बाती लहरती रहती और हम जस के तस अड़े रहे |
व्दंद विचारो का है अपनी अपनी कहानी में,
कभी मेरा लहजा नर्म तो कभी उनके बोल कड़े रहे |
संभाला है मैंने दिल में उसे तेल की हर बूंद की तरह "साखी"
खुद का आंगन छोड़ वो और के महल में पड़े रहे |
-: साखी :-
" गुफ्तगू दीया और बाटी की " || Hindi Poem
Reviewed by Triveni Prasad
on
नवंबर 13, 2020
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